स ही बंदे को अगर सही समय पर मौक़ा मिल जाए तो फिर उसके लिए सफलता की ऊंचाइयां नापना आसान हो जाता है। कुछ ऐसा ही वरिष्ठ निर्देशक स्वर्गीय लेख टंडन के जीवन में भी घटित हुआ। 50 के दशक में पिता के सहपाठी रह चुके अभिनेता पृथ्वी राज कपूर की प्रेरणा से लेख टंडन ने हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में कैमरा सहायक और उसके बाद फ़िल्म ‘नेकी और बदी’ से प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक केदार शर्मा के सहायक के रूप में अपना फ़िल्मी जीवन आरम्भ किया। ज़ाहिर है ख़्वाहिश थी उस मौक़े की जब वे स्वयं एक फ़िल्म का निर्देशन करेंगे। पृथ्वी थिएटर और कपूर परिवार से जुड़ने के कारण कुछ प्रतिभावान और असरदार लोगों से मेल-मिलाप भी हो गया। इनमें संगीतकार शंकर-जयकिशन, कवि शैलेंद्र, कवि हसरत जयपुरी, गायक मुकेश इत्यादि प्रमुख थे। पेशावर अंचल के खत्री बिरादरी के एफ.सी. मेहरा 50 के दशक के मध्य तक एक फ़िल्म ‘सिपहसालार’ का निर्माण कर उसे रिलीज कर चुके थे। अपनी फ़िल्म निर्माण कंपनी ईगल फ़िल्म्ज़ के अंतर्गत शक्ति सामंत के निर्देशन में शम्मी कपूर, पद्मिनी, आग़ा, मदन पुरी, हेलन आदि को लेकर 1960 में इंडो मलय कोलेबरेशन से फ़िल्म ‘SINGAPORE’ भी रिलीज कर चुके थे। बेहद लोकप्रिय संगीतकारों की जोड़ी शंकर-जयकिशन का संगीत था। तो लेख टंडन के जीवन में भी एक सुनहरा पल आ गया, जब एफ.सी. मेहरा ने लेख टंडन से एक कहानी सुनकर उन्हें 1,000 रुपए का शगुन थमाकर फ़िल्म का निर्देशन देने के लिए अनुबंधित कर लिया।
बड़ी कृपा बरस गई थी, ख़ुशियां छलांगें लगा रही थीं, आंखों में चमक, चेहरे पर चौड़ी मुस्कान, हवा में तेज़ी से लहराते हाथ और फिर अचानक जयकिशन का सामने पड़ जाना। शंकर-जयकिशन का दफ्तरनुमा संगीत कक्ष भी इसी बिल्डिंग में था, जिसमें मेहरा साहेब का ऑफ़िस था। सो, इससे पहले कि जयकिशन इस ख़ुशी और तरंग का राज़ जान पाते, लेख टंडन ने स्वयं ही सबकुछ उगल दिया। आख़िर पुराने दिनों के साथी थे जय और शंकर। जयकिशन ने लेख को गले लगा लिया और हाथ पकड़कर शंकर को ये ख़ुशख़बरी देने ऑफ़िस खींचकर ले गए। ये समाचार सुनकर शंकर की ख़ुशी भी देखने लायक़ थी। शंकर-जयकिशन ने अपने साथी लेख टंडन को तोहफ़ा दे दिया, ‘लेख प्यारे, तू जाके मेहरा को कह दें कि हम तेरी पिक्चर कर रहे हैं।’ लेख हक्के-बक्के! क्योंकि इस समय तक शंकर-जयकिशन फ़िल्म जगत के सबसे सफलतम और सबसे महंगे संगीत निर्देशक बन चुके थे। इनका नाम फ़िल्म की सफलता की निशानी का पर्याय बन गया था। लेख टंडन के दिमाग़ में सवालों के करंट झटके मार रहे थे- ये शंकर-जयकिशन, जिनसे म्यूज़िक करवाने के लिए बड़े-बड़े निर्माता-निर्देशक लाइन लगाते हैं, क्या मुझ जैसे नए-नवेले डायरेक्टर के लिए संगीत देंगे? और अगर राज़ी भी हो जाते हैं तो क्या प्रोड्यूसर मेहरा साहेब इनकी इतनी तगड़ी फ़ीस चुका पाएंगे? शंकर-जयकिशन तब एक फ़िल्म के लिए 4.5 लाख रुपए की फ़ीस लेने लगे थे (जो 2022-23 के मूल्यांकन से लगभग 3 करोड़ 75 लाख रुपए होने चाहिए, परंतु इस राशि में और भी बहुत सारी चीज़ें शामिल हैं, जिनका बयान इस लेख को अर्थशास्त्र और वित्तीय व्यवस्था की तरफ़ ले जाएगा)। लेख के दिल-ओ-दिमाग़ में जो चल रहा था, उसे शंकर-जयकिशन ने ताड़ लिया था और फिर वो बोले, ‘घबरा नहीं लेख, जाके मेहरा साहेब को कह दे कि हम तेरी फ़िल्म करने का 10 हज़ार रुपए लेंगे। और कल 12 से पहले जय के घर पर म्यूज़िक के लिए पहुंच जाना।’
संघर्ष के दिनों में हम सब छोटी-छोटी ख़ुशियों में मस्त हो जाते हैं, लेकिन यहां तो जैसे ख़ुशियों का मेला लग गया था। तो उसी शाम ख़ुशियों के मेले का जश्न मनाने के लिए यार दोस्तों के साथ पार्टी हुई। खाना-पीना, मस्ती में रात को सोना देर से हुआ तो अगले दिन नींद भी देर से खुली। और 12 बजे के बाद जब वे जयकिशन के घर पहुंचे तो वे टाइट सफ़ेद पैंट और शर्ट में लिफ्ट के बाहर ही मिल गए। जयकिशन का रूटीन था कि संगीत की धुनों या पार्श्व संगीत पर उन्हें जो भी काम करना होता था, दोपहर 12 बजे से पहले करते थे। फिर स्नान के बाद स्टूडियो निकल जाते थे। लेख को इतनी देरी से आया देखकर शायद थोड़े भड़के भी हो, लेकिन वापस घर के अंदर जाकर एक बड़े स्टूल पर हार्मोनियम रखकर बोले, ‘8-10 धुनें सुना रहा हूं। जो पसंद आए, वो तेरी और ऐसा कहकर बाजे पर सुर छेड़ते हुए 3-4 धुनें सुना डालीं (ध्यान रहें कि फ़िल्म के गाने अधिकांशतः एक म्यूजिकल ट्यून पर बैठाए गए शब्द या कविता के बोल होते हैं)। पांचवीं या छठवीं धुन ने लेख टंडन का मन मोह लिया। कहा, ये मुझे दे दो। ये धुन मेरी हुई। जयकिशन ने सिर्फ़ इतना कहा कि लेख जिस धुन को तूने चुना है, आने वाले कई सालों तक उसका तोड़ नहीं मिल पाएगा! शंकर-जयकिशन की यह धुन 10 मात्रा (झप ताल- धी ना धी धी ना, ती ना धी धी ना/ जो साउंड सस्टेन के कारण धिन ना धिन धिन ना, तिन ना धिन धिन ना भी सुनायी देता है) में बद्ध वो रचना है, जिसे हसरत जयपुरी की कविता ने अमर कर दिया। गीत है- आवाज़ दे के हमें तुम बुलाओ, मोहब्बत में इतना ना हमको सताओ! उसके बाद SAXOPHONE का MUSIC INTERLUDE जो SAXOPHONE सीखने वालों के लिए तालीम का एक अहम सबक़ है। अंतरे के बोल मुलाहिज़ा फ़रमाएं- मैं सांसों के हर तार में छुप रहा हूं मैं धड़कन के हर राग में बस रहा हूं ज़रा दिल की जानिब निगाहें झुकाओ मोहब्बत में इतना ना हमको सताओ। और फिर इसके बाद जयकिशन ने मीठी-मीठी धुनों की भरपूर झड़ी लगा दी। फ़िल्म थी 1962 में रिलीज ‘प्रोफ़ेसर’ (मुख्य कलाकार- शम्मी कपूर, कल्पना, ललिता पवार इत्यादि) और इस फ़िल्म की अपार सफलता ने लेख टंडन को एक अत्यंत प्रतिभाशाली निर्देशक के रूप में स्थापित कर दिया। आने वाले समय में लेख टंडन ने कई बेहतरीन और सफलतम फ़िल्में बनाकर फ़िल्म जगत में एक अमूल्य योगदान दिया। लेख टंडन की कुछ चुनी हुईं फ़िल्मों में झुक गया आसमान, आम्रपाली, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, अगर तुम ना होते उल्लेखनीय हैं। संगीत प्रेमियों के लिए लेख टंडन की फ़िल्मों के कुछ नायाब गीत- मैं चली मैं चली पीछे पीछे जहां, ये ना पूछो किधर ये ना पूछो कहां। सजदे में हुस्न के झुक गया आसमां, लो शुरू हो गई प्यार की दास्तां। ऐ गुलबदन ऐ गुलबदन, फूलों की महक कांटों की चुभन, तुझे देख के कहता है मेरा मन, कहीं आज किसी से मोहब्बत ना हो जाए। (प्रोफ़ेसर) तुम्हें याद करते करते जाएगी रैन सारी, तुम ले गए हो अपने संग नींद भी हमारी। नील गगन की छाओं में दिन रैन गले से मिलते हैं। जाओ रे जोगी तुम जाओ ये है प्रेमियों की नगरी, यहां प्रेम ही है पूजा। (आम्रपाली) सच्चा है गर प्यार मेरा सनम मेरे तुम्हारे बीच में अब तो ना परबत ना सागर (झुक गया आसमान) ले तो आए हो हमें सपनों के गांव में प्यार की छाओं में बिठाए रखना, सजना ओ सजना। (दुल्हन वही जो पिया मन भाए) ध्यान रहे, अच्छा संगीत, अच्छे स्तर की कविता और साहित्य हृदय व मस्तिष्क के लिए औषधि के समान है। भारतीय शास्त्रीय संगीत से रोग के उपचार के प्रयोग सफलता की ओर बढ़ रहे हैं। घर की मुर्गी को दाल बराबर ना समझें! आज्ञा लेता हूं जय हिंद! वंदे मातरम!